Monday, February 24, 2020

जीवन के निर्माण में कर्म की महत्ता / Importance of Karma in formation of life

मैं अपना ब्लॉग कर्म योगी श्रद्धेय श्री भानुकुमार जी शास्त्री को समर्पित करता हूँ। मेरा लेख "लोकाराधना एव मम जीवनम्" संकल्प के धनी भानुकुमार जी शास्त्री एक जीवनी पुस्तक पर आधारित है जिसके लेखक उनके अनुज श्री नारायण लाल जी शर्मा है। इस जीवनी में कई मार्मिक पल आते हैं जो की हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं एवं अश्रु आंखों से सहसा बह निकल आते हैं। यद्यपि मेरा भानु जी से व्यक्तिगत रूप कोई सम्बंध नहीं रहा है किन्तु जीवनी में किए गए शब्दों की विवेचना से उनसे एक खास सम्बंध हो गया। पूर्व में मैंने उनके बारे में सुना था किंतु इस जीवनी के माध्यम से ही मैं उन्हें इतनी गहराई के साथ समझ पाया कि अब उन्हें अपने करीब ही पाता हूँ तथा जीवनी पढ़ते समय उनकी छवि चल चित्र की तरह मेरे स्मृति पटल पर उभर आती है।

संस्कारों के जो बीज दादाजी, पिताजी, माताजी एवं बड़े भाइयों द्वारा परिवार में रोपित किए गए उन्हें मैं मेरे गुरु जी श्री नारायण लाल जी शर्मा के माध्यम से देख पाता हूँ, क्योंकि वह सभी गुण साक्षात रूप से मैंने उनमें देखे हैं। शायद ये ही वह संस्कार हैं जो प्रेम, वात्सल्य और जीवन जीने के आदर्श मूल्यों के रूप में हम एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को देते हैं।

श्रद्धेय श्री भानुकुमार जी शास्त्री का नाम मेवाड़ क्षेत्र के लिए नया नहीं हैं। यह एक ऐसे व्यतित्व की पहचान है जिसे संस्कृत, साहित्य एवं ज्योतिषी के गुणों की खान कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, वे यदि चाहते तो एक सामान्य व्यक्ति की तरह नौकरी कर जीवन यापन कर सकते थे किन्तु उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को लोक कल्याण एवं समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया। भानु जी का जन्म 29 अक्टूबर 1925 को हैदराबाद (सिंध प्रांत-अखंड भारत) में हुआ किन्तु उनका कर्मक्षैत्र मेवाड़ रहा। उनका मेवाड़ की धरा से लगाव बचपन से ही हो गया था जब वे श्रीनाथ जी के दर्शन प्राप्त करने एवं यज्ञोपवित के लिए नाथद्वारा आये थे। उन्हें अपने राजनीतिक जीवन में कई अवसर केंद्र के लिए मिले किन्तु उन्होंने मेवाड़ को ही अपना सर्वस्व समर्पित करने का संकल्प कर लिया था।

प्रत्येक परिवार में एक महिला की स्थिति महत्त्वपूर्ण होती है, वह अपने जीवन काल में विभिन्न सम्बंधों के चलते पुत्री, बहन, सखी, पत्नी, माँ, ताई, चाची, बुआ एवं दादी इत्यादि कई पड़ावों से गुजरती है। किंतु एक महिला का परिवार में रिक्त स्थान होने पर ही इन सम्बंधों की महत्ता का ज्ञान होता है। शायद इसी कारण दादा जी ने पिता गिरधारी लाल जी को विवाह करने को प्रेरित किया था। माँ प्रकृति की तरह होती है जो हमेशा हमको देने के लिये जानी जाती है, बदले में बिना कुछ भी हमसे वापस लिये। हम उसे अपने जीवन के पहले पल से देखते है, जब इस दुनिया में हम अपनी आँखे खोलते है। जब हम बोलना शुरु करते है तो हमारा पहला शब्द होता है माँ। जिस तरह एक महासागर बिना पानी के नहीं हो सकता उसी तरह माँ भी हमें ढेर सारा प्यार और देख-रेख करने से नहीं थकती है। यह माँ का मातृत्व एवंअगाध प्रेम ही था जिसने अपने प्यार से पूरे परिवार को एक सूत्र में बांध कर रखा तथा गुरु की भांति सभी को नैतिक एवं जीवन मूल्यों की शिक्षा दी।

दादा पोते का रिश्ता वात्सल्य से ओतप्रोत होता है। इस रिश्ते में भावनात्मक भावनाएँ प्रगाढ़ रूप से जुड़ी रहती है जिससे इनके बीच का प्रेम और सम्बंध बहुत मजबूत होता है। आमतौर पर बचपन में इसी रिश्ते की वजह से बच्चों के अंदर अच्छे संस्कार, अनुशासन, जीवन में आगे बढ़ने का प्रोत्साहन, प्रेम-सम्मान की भावना आदि का विकास होता है जो कि जीवन पर्यंत मददगार साबित होते है तथा यह सम्बंध ही खेल-खेल में हमारी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का काम करता है।

भानु जी एवं उनके दादाजी के मध्य भी कुछ इसी तरह के सम्बंध थे। भानु जी बचपन से ही पढ़ने में कुशाग्र बुद्धि, मेधावी व कर्मठ बालक थे। बचपन में उन्हें दादा जी ने गीता का अध्ययन कंठस्थ करवाया था जिसका वे ता उम्र प्रतिदिन की दिनचर्या में सस्वर गीता पाठ किया करते थे। दादा जी की इच्छानुसार ही उन्हें संस्कृत एवं ज्योतिष के विद्यालय में प्रवेश दिलवाया जहाँ गुरुजनों की शिक्षा से कालान्तर में उनका ज्योतिष एवं संस्कृत साहित्य के प्रति बहुत गहरा लगाव हुआ। उनका संस्कृत का उच्चारण भी बहुत शुद्ध था। उन मार्मिक पलों की कल्पना भी बहुत मुश्किल है जिसमें दादाजी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में पोते को आखिरी बार गीता पाठ सुनाने के लिए कहा हो। यह वृतांत किसी भी मनुष्य के लिए जीवन भर की एक हृदय विदारक अविस्मरणीय टीस होती है।

वर्ष 1942 में संघ के स्वयंसेवक बनने के बाद भानु जी संघ की शाखा में नियमित रूप से जाने लगे। संघ द्वारा दी गई शिक्षा से उनमें बलिदान, समाज सेवा एवं देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी गई थी। भानु जी एवं परिवार के सभी सदस्य भारत पाकिस्तान विभाजन 15 अगस्त 1947 के दौरान भारत आ गए। किन्तु आप, पिताजी तथा भाइयों के साथ पुनः हैदराबाद (सिंध प्रांत-अखंड भारत) लौट गये तथा संघ के कार्यकर्ताओं के साथ वहाँ संकट में घिरे हिन्दुओं को अपने प्राणों की परवाह न करते हुए बचाया। वास्तव में आप जैसे संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए सक्रिय योगदान ही है जिसने कई लोगों की ज़िन्दगी को संभाला एवं संवारा है तथा आपके द्वारा प्रस्तुत किया गया यह आदर्श हम सभी को भी कर्म योगी बन समाज कल्याण के योगदान की प्रेरणा देता है।

भानु जी ने वर्ष 1952 में ही संस्कृत शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी एवं साहित्य व शिक्षा के रूझान के चलते ही वर्ष 1957 में विद्यानिकेतन विद्यालय की नींव रखी गई थी। संस्कृत एवं साहित्य के ज्ञान की यात्रा में उन्हें पंडित मणिशंकर द्विवेदी, कवि यात्री (नागार्जुन), पंडित गिरधारी लाल शर्मा एवं पीठाधीश स्वामि गंगेश्वरानंद का सान्निध्य एवं मार्गदर्शन मिला।

भानु जी विभाजन के पश्चात उदयपुर आकर संघ के कार्य में प्रवत्त हो गये। जब संघ पर प्रतिबन्ध लगा तथा जेल भरो आन्दोलन प्रारंभ हुआ तब उन्होंने भूमिगत रहते हुए कार्य का संचालन किया। भानु जी वर्ष 1951 में जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने तथा मेवाड़ क्षेत्र में संगठन को सुदृढ करने जिम्मेदारी संभाली। वर्ष 1953 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी एवं अन्य कार्यकर्ताओं के साथ उदयपुर से भानु जी तथा श्याम जी ने भी कश्मीर आंदोलन में भाग लिया तथा वहाँ पकड़े जाने पर कठुआ जेल में करीब 11 महीनें बिताए।

वर्ष 1967 के विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार अभियान के संदर्भ में जब बीबीसी लंदन से आकाशवाणी पर कहा गया कि "शास्त्री जी और कार्यकर्ताओं के कार्य के सामने सुखाड़िया जी का जीतना कठिन है यह लड़ाई सामान्य चाय (शास्त्री जी) वाले से मुख्यमंत्री जी (सुखाड़िया जी) की लड़ाई है"।

वास्तव में यह वक्तव्य आपके द्वारा किए गए संघर्ष की जीत को बतलाता है एक संघर्षशील मनुष्य पूरे आत्मविश्वास के साथ हर बाधा-विरोधों से जूझते हुए अपनी मेहनत से छोटे से बड़े हर संघर्ष को अपने दम पर जीत में बदलने का दम रखता है।

यद्यपि इस चुनाव में जीत सुखाड़िया जी की हुई किन्तु चुनाव के दौरान सुखाड़िया जी द्बारा किए गए प्रशासनिक दुरुपयोग के खिलाफ शास्त्री जी ने चुनाव के बाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। उच्च न्यायालय से उनके खिलाफ फैसला आने पर, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। यह कृत्य दिखलाता है कि उनमें अपने उसूलों पर अटल रहने की दृढ़ता थी, जीवन में चाहे कितनी भी विपत्तियों का सामना करना पड़े लेकिन वह अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं होते थे।

आपातकाल के समय जो 25 जून 1975 से शुरू हुआ, वह जनसंघ के प्रदेश अध्यक्ष थे। इस दौरान करीब 20 महीने उन्होंने जेल में बिताए तथा वह अपनी बहन की शादी के लिए भी पैरोल पर आए और तुरंत जेल चले गये। तत्पश्चात जब भानु जी पैरोल पर छूट कर आए थे एवं आपातकाल भी हटा नहीं था, ऐसे में वर्ष 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा की गई तभी जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो चुका था। भानु जी उदयपुर से जनता पार्टी के प्रत्याक्षी थे तथा चुनाव में अथक परिश्रम से भारी मतों से विजय होकर संसद सदस्य बने।

वर्ष 1980 में सरकार भंग होने के पश्चात् लोकसभा चुनाव की घोषणा की गई। इस लोकसभा चुनाव की एक घटना से भानु जी की सादगी का पता चलता है इसके अंतर्गत कुंभलगढ़ विधानसभा की केलवाड़ा कस्बे में कांगेस के प्रत्याक्षी सुखाड़िया जी एवं भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याक्षी भानु जी की सभा एक ही समय पर एक स्थान पर होनी थी। सुखाड़िया जी के आग्रह पर विनम्रता के साथ भानु जी ने उन्हें सभा की स्वीकृति दे दी, जिसके पश्चात सुखाड़िया जी ने पहले अपना भाषण दिया तत्पश्चात मंच से पार्टी के झंडे एवं बैनर उतार कर बदल दिए गए फिर उसी मंच से भानु जी ने भी सभा की तथा उसके पश्चात केलवाड़ा के गेस्ट हाउस में एक ही कमरे में दोनों ने रात्री में प्रवास किया। वर्तमान समय में शायद ही हमें कभी ऐसी किसी घटना का जिक्र सुनने को भी मिले। इसी प्रकार की कई अन्य घटनाएँ उनके सिद्धांतों को दर्शाती है कि वे अपने राजनीतिक जीवन में हमेशा विचारधारा एवं नीतियों के विरोधी रहे किन्तु व्यक्ति के नहीं, इसी कारण से आजीवन उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदियों से घनिष्ठ घरेलू सम्बन्ध रहे।

भानु जी का राजनीतिक जीवन बहुत संघर्ष शील रहा है। वह पार्षद, नगर पालिका उपाध्यक्ष, विधायक, सांसद और कैबिनेट मंत्री के पद के साथ-साथ निगम और बोर्डों के अध्यक्ष भी रहे हैं। उदयपुर के नगर निगम के पार्षद से लेकर उपाध्यक्ष तक, विधायक से लेकर सांसद तक, कोई भी भानु जी के ईमानदार और वैचारिक जीवन पर कभी सवाल नहीं उठा सकता। उन्होंने हमेशा सादगी एवं ईमानदारी के साथ हर कार्य को अंजाम तक पहुंचाया।

लघु उद्योग निगम के अध्यक्ष पद के कार्यकाल (1991-1993) में निगम की हानि को अपनी ईमानदारी के साथ किए गए अथक प्रयास से लाभ में परिवर्तित कर दिया। इसी प्रकार से खादी एवं ग्रामोद्योग अध्यक्ष पद के कार्यकाल (1995-1998) में आप ने पूर्ण निष्ठा के साथ विकास का कार्य किया तथा विभाग ने वर्ष 1998 में ऋण वसूली में राजस्थान को भारत में सर्वोच्च स्थान दिलवाया फलस्वरुप भारत सरकार ने पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया। वे सदैव तत्परता के साथ कर्मचारियों की समस्याओं का समाधान करते थे तथा उनके द्वारा दिए गए सुझावों पर अपने सकारात्मक दृष्टिकोण से अमल भी करते थे। प्रतिद्वंद्वी दल के कार्यकर्ताओं एवं सदस्यों का भी आदर सम्मान के साथ मदद किया करते थे तथा कभी भी विरोधियों के प्रति भी वैमनस्य का भाव नहीं रखते थे। उनका सभी से प्रेम व आत्मीयता का सम्बंध था।

भारतीय जनसंघ के स्वयंसेवक होने से लेकर संसद तक की अपनी लंबी यात्रा में उन्हें पंडित श्री दीनदयाल उपाध्याय, श्रद्धेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री भैरों सिंह शेखावत, श्री सुंदरसिंह भंडारी, श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (श्री गुरुजी), श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस, श्री एकनाथ रानाडे, श्री जगन्नाथराव जोशी जैसे जननायकों के साथ विभिन्न पहलुओं पर चर्चा और सहयोग का अवसर मिला।

वे कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख कहानियाँ इत्यादि लिखा करते थे साथ ही उन्होंने दो प्राचीन संस्कृत में लिखी पांडुलिपियों का अध्ययन किया था। जिनमें से एक महाराणा प्रताप के पुत्र महाराणा अमर सिंह के समय लिखी हुई थी जिसका नाम "अमरसार" था तथा दूसरी ज्योतिष से सम्बंधित थी। इस कार्य के लिए ज्योतिष एवं संस्कृत का ज्ञान आवश्यकता था, जिसके वे प्रखर ज्ञाता थे उन्होंने ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद कर लेखन भी किया।

वर्ष 2002 में भानु जी को मानद् डॉक्ट्रेट की उपाधि दी गई (ग्लोबल ओपन यूनिवर्सिटी मिलान, यू.एस.ए. व उससे सम्बंधित अन्य संस्थाओं द्वारा दी गई) साथ ही शैक्षिक सांस्कृतिक व सामाजिक उन्नति के लिए भी उन्हें राधाकृष्ण अंतर्राष्ट्रीय सम्मान दिया गया। आपके संस्कृत साहित्य की सेवा एवं लेखन के कारण ही राजस्थान सरकार के संस्कृत शिक्षा विभाग ने अगस्त 2016 में सर्वोच्च संस्कृत शिक्षा सम्मान देकर सम्मानित किया।

गोस्वामी तुलसीदास जी कर्म के मर्म को बखूबी जानते थे तभी आप जैसे कर्म योगी के लिए उन्होंने कहा है "सकल पदारथ एहि जग माहिं।" अर्थात इस संसार में सभी कुछ है जिसे हम मनुष्य जन पाना चाहें तो प्राप्त कर सकते हैं। जिसकी प्रेरणा हमें आप के जीवन के माध्यम से प्राप्त होती है।

ज्योतिष विद्या ज्ञान के चलते भानु जी को उत्तरार्ध का ज्ञान था तथा गणनानुसार पूर्व निर्धारित तिथि दिनांक 24 फरवरी 2018 को परम पिता परमेश्वर में विलीन हो गए।

आप भारतीय जनता पार्टी तथा भारतीय जनसंघ के सबसे पुराने नेताओं में से एक थे। जो की लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वरिष्ठ अग्रिम पंक्ति के प्रखर वक्ताओं के समकालीन थे।

मेवाड़ क्षेत्र की राजनीति में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भानु जी को सरल जीवन और उच्च विचार क्षमता वाले नेता के रूप में माना जाता है। जीवन भर इस सादगी के साथ कार्य करते हुए, वह पवित्रता का पर्याय बन गए। उन्होंने क्षेत्र में शिक्षा, समाज कल्याण और राजनीतिक जागरूकता के लिए काम करते हुए अपने जीवन संकल्प "लोकाराधना एव मम जीवनम्" को स्थापित किया।

अपना जीवन लोककल्याण को समर्पित कर निस्पृह, निःस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले श्रद्धेय श्री भानुकुमार जी को शत्-शत् नमन।

रवि की कलम से...