दुनिया सिर्फ़ "नतीजों" को ही "सलाम" करती हैं..."संघर्ष" को नहीं।
यह वक्तव्य मेरे एक मित्र ने दिया एवं यह समझाने लगा कि हम सभी लोग कर्म अर्थात संघर्ष कर रहे हैं परंतु समाज सिर्फ़ नतीजों में सफल होने पर ही सम्मान करता हैं इसलिए संघर्ष का कोई अस्तित्व नहीं हैं।
किन्तु मेरी समझ से संघर्ष के बिना तो सफलता का वजूद ही नहीं है एवं यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं तथा हमारी सनातन संस्कृति भी तो कर्म प्रधान ही है।
यदि संघर्ष या कहें की कर्म ही नहीं होगा तो सफलता या असफलता का एहसास कैसे प्राप्त किया जा सकता हैं?
चलिए आज कुछ उदाहरण की मदद से इसे समझने की कोशिश करते हैं...
एक गरीब किसान परिवार में जन्म लेने वाले बालक ने सरकारी स्कूल से शिक्षा प्राप्त की तथा गरीबी के कारण उनके भाई और दो बहनें उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे थे। उनका दाखिला भी घर के पास के कॉलेज में करा दिया गया ताकि वे पिताजी की मदद कर पाए। उन्होंने अपने बचपन के दिन भी बिना जूते या चप्पल के गुजारे एवं कॉलेज तक धोती पहनते थे तथा उन्होंने पहली बार पैंट भी एमआईटी में प्रवेश करने के बाद पहना।
वह अपने परिवार में पहले स्नातक बने तथा मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
आज सभी लोग इन्हें इसरो के 'रॉकेट मैन' के रूप में जानते है, जी हाँ आप श्री कैलासवादिवु सिवन ही हैं जो कि वर्तमान में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष के रूप में कमान संभाले हुए हैं।
इस तरह एक विद्यार्थी परिस्थितिवश बहुत बार भ्रमित होता है किन्तु यह उसका संघर्ष ही है कि अपनी ख्वाहिशों पर लगाम लगा कर लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में मेहनत करता है। उसके प्रतिदिन की एकाग्रता, लगन एवं त्याग का मूल्यांकन सिर्फ़ वह स्वयं ही कर सकता हैं।
एक अन्य बालक जिसके माता-पिता ग्रामीण क्षेत्र में स्थानीय किराने की दुकान चलाते हैं। वह एक विचित्र बीमारी "स्कोलियोसिस" से पीड़ित होता है, यह एक ऐसी स्थिति जिसने उसकी रीढ़ की हड्डी को दाईं ओर मोड़ दिया है और उसके दाहिने पैर को उसके बाएँ से आधा इंच छोटा कर दिया है। इसका एक परिणाम यह है कि उनका बायाँ पैर उनके दाहिने पैर की तुलना में 15 प्रतिशत ज़मीन पर ज़्यादा बना हुआ है। पूरे विश्व में इस बीमारी का कोई इलाज भी नहीं है लेकिन इस विषमता ने बावजूद उस बालक ने हार नहीं मानी तथा अपने संघर्ष एवं दृढ़ निश्चयता के कारण ही आज कई विश्व कीर्तिमान अपने नाम किए...वह कोई ओर नहीं बल्कि विश्व का सबसे तेज धावक उसैन बोल्ट है।
इसी तरह एक खिलाड़ी अपने रास्ते में आने वाली सभी अड़चनों का दृढ़ता से सामना करता हैं एवं वह उन सभी खादय पदार्थो एवं वस्तुओं का त्याग कर देता है जिससे की उसे लक्ष्य की प्राप्ति में रुकावट आती हो।
हालांकि परिणाम या सफलता का पैमाना सभी का अलग-अलग होता हैं।
एक विद्यार्थी कक्षा में प्रथम स्थान के परिणाम के लिए संघर्ष करता है एवं अन्य सिर्फ़ उत्तीर्ण होने के लिए संघर्ष करते हैं।
इसी तरह दौड़ में सभी खिलाड़ी प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते है किन्तु वह स्थान किसी एक को ही प्राप्त होता है। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि अन्य खिलाड़ियों ने मेहनत या संघर्ष नहीं किया होगा।
सभी खिलाड़ियों एवं विद्यार्थियों के परिणाम एवं उनके अपने संघर्ष भी भिन्न होते हैं।
हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि किस्मत के बिना कुछ भी संभव नहीं है चाहे वह कितना भी प्रयास कर ले। ऐसे लोग किस्मत में नहीं है कह कर प्रयास करना भी छोड़ देते हैं जो कि आगे चल कर उनमें शिथिलता, आलस्य एवं नकारात्मकता को जन्म देती है।
ऐसे लोग अन्य कर्म प्रधान लोगों को भी अपने विचारों से अर्कमडयता की दिशा में दिग्भ्रमित कर देते हैं। जिससे कई लोग कर्म को मध्य में ही आने वाली परिस्थितियों के वशीभूत होकर छोड़ देते हैं। किंतु जो लगन, एकाग्रता तथा अनुशासन के साथ परिश्रम करता है वही सफलता की पराकाष्ठा पर खरा उतरता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कर्म के मर्म को बखूबी जानते थे तभी उन्होंने कहा है "सकल पदारथ एहि जग माहिं। कर्महीन नर पावत नाहिं॥" अर्थात इस संसार में सभी कुछ है जिसे हम पाना चाहें तो प्राप्त कर सकते हैं लेकिन जो कर्महीन अर्थात प्रयास नहीं करते वे इच्छित चीजों को पाने से वंचित रह जाते हैं।
किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम प्रयास करना ज़रूरी है एवं उसके लिए आपको अपनी मानसिक एवं शारीरिक ऊर्जा का इस्तेमाल करना पड़ता है। साथ ही उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आपको अपनी कौशल को भी निखारना होता है तथा आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति ही आपको लक्ष्य प्राप्त करने में मदद करती है।
प्रत्येक परिवार में अनुज अपने मां-बाप एवं अग्रज भाई बहनों की मेहनत एवं उनके कर्मों को देखकर उनका अनुसरण अपने जीवन में करते हैं।
इसी तरह जब समाज किसी सफल व्यक्ति को सम्मानित करता है तो वह सफल व्यक्ति उनका नायक होता है। वस्तुतः समाज उस परिश्रमी व्यक्ति की सहनशीलता, लगन, एकाग्रता, अनुशासन एवं दृढ़ निश्चयता जैसे गुणों का सम्मान करता है जो उसके द्वारा जीवन में संघर्ष के दौरान दृढ़ता से पालन किए गए एवं समस्त समाज जनो को उसके द्वारा किए गए संघर्ष से प्रेरणा लेकर उन गुणों को अपने जीवन में परिलक्षित करना चाहिए।
इसलिए सही मायने में तो संघर्ष अर्थात कर्म की महत्ता हर सूरत में परिणाम से भी अधिक है।
वास्तव में हम सभी का जीवन हमेशा कर्मप्रधान होना चाहिए एवं हमें आने वाली नई पीढ़ी के सामने स्वयं को आदर्श रूप में स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
“कर्म करे क़िस्मत बने जीवन का यह मर्म,
प्राणी तेरे हाथ में तेरा अपना कर्म...”
रवि की कलम से...